संघ, शिवाजी और ब्राह्मण वर्चस्व
संघ, शिवाजी और ब्राह्मण वर्चस्व: इतिहास की पुनर्रचना या सत्ता का केंद्रीकरण?
संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) वर्षों से यह दावा करती रही हैं कि वे छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे राष्ट्रनायक को सम्मान देती हैं, उन्हें “हिंदू स्वराज्य” के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य, जहाँ मराठा नेतृत्व ऐतिहासिक रूप से प्रभावशाली रहा है, वहाँ आज सत्ता की कमान एक ऐसे वर्ग के हाथों में है, जो न केवल अल्पसंख्यक है बल्कि ऐतिहासिक रूप से मराठा समाज के साथ संघर्षरत भी रहा है — ब्राह्मण वर्ग।
महाराष्ट्र में मराठा राजनीति का लगातार पतन, राजस्थान में राजपूत नेतृत्व की उपेक्षा, और इन दोनों ही राज्यों में ब्राह्मण नेताओं को थोपे जाने की राजनीति ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है: क्या संघ “हिंदू एकता” के नाम पर दरअसल एक ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना को राष्ट्रव्यापी स्तर पर मजबूत कर रहा है?
शिवाजी और मराठा विरासत की राजनीति
छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के उन चंद नायकों में से हैं, जिनकी छवि लगभग हर विचारधारा ने अपनाई है। कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रवादी योद्धा कहा, सोशलिस्टों ने उन्हें किसानों का हितैषी बताया और संघ ने उन्हें “हिंदू राष्ट्र” के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया।
लेकिन क्या संघ वास्तव में शिवाजी की उस राजनीतिक विरासत को स्वीकार करता है जो सामाजिक न्याय, स्वराज्य और क्षेत्रीय आत्मनिर्भरता पर आधारित थी? शिवाजी न केवल एक योद्धा थे, बल्कि उन्होंने उस समय की जातीय वर्चस्ववादी सोच को चुनौती दी थी। उन्होंने अपने प्रशासन में सभी जातियों को स्थान दिया, अपने नौसेनाध्यक्ष डेसाई कोल्हाटकर जैसे गैर-ब्राह्मण नेताओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया। यह संघ के “एक संस्कृति, एक राष्ट्र” वाले विमर्श से मेल नहीं खाता।
पेशवा बनाम छत्रपति: सत्ता का ऐतिहासिक संघर्ष
शिवाजी के उत्तराधिकार में पेशवाओं का उदय एक निर्णायक मोड़ था। यह बात ऐतिहासिक रूप से दर्ज है कि पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य की वास्तविक सत्ता धीरे-धीरे छत्रपति से छीनकर अपने हाथों में केंद्रित की। पेशवा — जो मूलतः ब्राह्मण थे — उन्होंने शासन व्यवस्था को अत्यधिक केंद्रीकृत और जातिवादी बना दिया।
छत्रपति शिवाजी के वंशज नाम मात्र के राजा रह गए और सत्ता का पूरा नियंत्रण ब्राह्मण पेशवाओं के हाथों चला गया। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम वर्तमान महाराष्ट्र की राजनीति से मेल खाता प्रतीत होता है, जहाँ भाजपा और संघ ने एक ओर शिवाजी को ‘आइकन’ के रूप में प्रचारित किया, वहीं दूसरी ओर मराठा नेतृत्व को राजनीतिक रूप से किनारे लगा दिया गया।
महाराष्ट्र में मराठा राजनीति का पतन
1990 के दशक तक महाराष्ट्र की राजनीति शरद पवार जैसे मराठा नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती थी। कांग्रेस और बाद में एनसीपी, दोनों में मराठा नेतृत्व प्रमुख था। लेकिन 2014 के बाद भाजपा के उदय के साथ ही मराठा नेतृत्व को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया गया।
फडणवीस जैसे ब्राह्मण नेता को मुख्यमंत्री बनाना, वह भी तब जब उनकी पार्टी में उनसे कहीं अधिक अनुभवी और जनाधार वाले मराठा नेता मौजूद थे, एक स्पष्ट संकेत था — सत्ता अब क्षेत्रीय और जातीय संतुलन से नहीं, बल्कि संघ के एजेंडे से तय होगी। उद्धव ठाकरे के साथ हुआ व्यवहार, और अंततः एकनाथ शिंदे जैसे “मराठा चेहरे” का उपयोग कर सत्ता को ब्राह्मण नियंत्रण में बनाए रखना — यह सब संकेत करते हैं कि महाराष्ट्र में मराठा नेतृत्व अब केवल प्रतीकात्मक है।
मराठा बनाम राजपूत: फर्जी ऐतिहासिक टकराव की राजनीति
इतिहास में मराठा और राजपूतों के बीच कुछ संघर्ष जरूर रहे हैं, लेकिन वर्तमान में ना तो उनकी बसावट का क्षेत्र समान है ना ही कोई अन्य सामाजिक संघर्ष का कारण। लेकिन संघ द्वारा राजपूत क्षेत्र (उत्तर भारत) में लगातार मराठा आइकन थोपे जाना, पेशवाई के टाइम लूट मार करने वालों को धर्म रक्षक बताना और राजपूतों को गद्दार, मुगलपूत आदि बताने का कुत्सित प्रयास किया जाता है, जिससे दोनों समुदायों का आपस में बेवजह टकराव होता है। ये सभी रणनीतियाँ सिर्फ एक मकसद की पूर्ति करती हैं — क्षत्रिय और अन्य ओबीसी जातियों के बीच फूट डालना, ताकि ब्राह्मण नेतृत्व को कोई चुनौती ना मिले।
राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन और ब्राह्मण सत्ता का उदय
राजस्थान में भाजपा की राजनीति कभी भैरों सिंह शेखावत जैसे मजबूत राजपूत नेता के इर्द-गिर्द थी। उन्होंने एक मजबूत सामाजिक गठबंधन तैयार किया था, जिसमें ओबीसी, राजपूत, जाट और दलित समुदायों की भागीदारी थी। परन्तु हाल ही में राजस्थान में भाजपा ने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया, जो पहली बार विधायक बना और ब्राह्मण वर्ग से आता है — यह वही मॉडल है जो महाराष्ट्र में फडणवीस के साथ अपनाया गया था।
इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि भाजपा और संघ अब राज्यों में जनाधार या अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि “सामाजिक नियंत्रण” के आधार पर नेतृत्व तय कर रहे हैं। यह सामाजिक नियंत्रण ब्राह्मण नेतृत्व के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो एक ओर हिन्दू एकता की बात करता है, और दूसरी ओर जातीय समीकरणों को इस तरह से तोड़ता है कि वर्चस्व बना रहे।
संघ की रणनीति: ‘हिंदू एकता’ के नाम पर सामाजिक असमानता की पुनर्स्थापना?
संघ का मूल विचार हिन्दू समाज को संगठित करना है, लेकिन यह संगठन किसके नेतृत्व में होगा, यह सवाल आज अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। क्या यह नेतृत्व बराबरी और समावेशिता पर आधारित होगा, या फिर एक विशेष जाति के वर्चस्व पर?
मौजूदा घटनाक्रम इस बात की पुष्टि करते हैं कि संघ हिन्दू समाज को संगठित तो करना चाहता है, लेकिन उस संगठन की बागडोर ब्राह्मण नेतृत्व के हाथों में ही रखना चाहता है। यही कारण है कि वह शिवाजी की मूर्ति तो लगवाता है, लेकिन शिवाजी की शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय और आत्मनिर्भरता की बात नहीं करता।
निष्कर्ष: क्या यह पुनः पेशवाई की वापसी है?
महाराष्ट्र और राजस्थान की राजनीति आज जिस दिशा में जा रही है, वह एक प्रकार की “नई पेशवाई” की ओर संकेत करती है — जहाँ सत्ता का संचालन वास्तविक जनाधार या जनप्रतिनिधित्व से नहीं, बल्कि वैचारिक और जातीय वर्चस्व के आधार पर किया जा रहा है।
संघ यदि सच में शिवाजी को सम्मान देना चाहता है, तो उसे उनकी नीति और शासन के मूल तत्वों को अपनाना होगा — जिसमें समावेशिता, सामाजिक न्याय, और हर वर्ग को समान अवसर देना शामिल है। केवल मूर्तियाँ बनवाकर, जयंतियाँ मनाकर या पाठ्यपुस्तकों में नाम शामिल कर देने से शिवाजी का सम्मान नहीं होता। सम्मान तब होता है जब उनके विचारों को जमीन पर उतारा जाए।
Labels: इतिहास, भाजपा, मराठा, राजनीति, राजपूत, संघ, हिन्दुत्व
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