कॉलेजियम सिस्टम और ब्राह्मण वर्चस्व
उच्च न्यायपालिका में ब्राह्मण वर्चस्व और कॉलेजियम सिस्टम: Indian Judicial Service की अनिवार्यता
भारत का संविधान हमें समानता, सामाजिक न्याय और अवसरों की निष्पक्षता का वादा करता है। लेकिन यह वादा तब खोखला लगता है जब हम देश की उच्च न्यायपालिका—यानी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय—की संरचना को देखते हैं। आज, भारत की सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं में से एक, न्यायपालिका, खुद एक सीमित सामाजिक वर्ग—मुख्यतः ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियों—के वर्चस्व में दिखाई देती है।
यह वर्चस्व किसी परीक्षा, प्रतिस्पर्धा या पारदर्शी चयन प्रक्रिया के माध्यम से स्थापित नहीं हुआ है, बल्कि इसका आधार है कॉलेजियम सिस्टम—एक अपारदर्शी और आत्म-नियुक्त प्रणाली जो जजों द्वारा ही जजों की नियुक्ति करती है।
इस लेख में हम कॉलेजियम प्रणाली के जातिगत और सामाजिक पक्षपात पर चर्चा करेंगे, साथ ही यह प्रस्ताव रखेंगे कि इसका एकमात्र प्रभावी समाधान है—Indian Judicial Service (IJS) का गठन, जो न्यायपालिका में विविधता, समावेशिता और जवाबदेही सुनिश्चित कर सके।
⚖️ कॉलेजियम सिस्टम: एक अपारदर्शी और आत्मकेंद्रित ढाँचा
कॉलेजियम सिस्टम भारत की उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों की वह प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम जज मिलकर यह तय करते हैं कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में कौन जज बनेगा। इस प्रक्रिया में न तो कोई प्रतियोगी परीक्षा होती है, न ही कोई आरक्षण नीति, और न ही सामाजिक प्रतिनिधित्व की गारंटी।
नतीजा यह है कि यह प्रणाली सामाजिक रूप से एक सीमित और उच्च जातीय वर्ग को लगातार पुनरुत्पादित करती है, जिसमें ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियाँ अत्यधिक मात्रा में दिखाई देती हैं।
यह वह प्रणाली है जो योग्यता (Merit) के नाम पर समाज के बहुसंख्यक तबकों—जैसे दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम—को दरकिनार कर देती है।
📊 उच्च न्यायपालिका में जातिगत असमानता: तथ्य क्या कहते हैं?
भारत की कुल जनसंख्या में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी लगभग 4-5% मानी जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में इनका प्रतिनिधित्व 50% से भी अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार:
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1950 से 2023 तक सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कुल जजों में से 70% से अधिक उच्च जातियों से थे।
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उच्च न्यायालयों में भी 80-85% जज ब्राह्मण, कायस्थ, भूमिहार, बनिया और अन्य अगड़ी जातियों से आते हैं।
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दलित और आदिवासी समुदायों से आए हुए जजों की संख्या नगण्य है। जिन एक-दो को जगह दी गई है, उन्हें "प्रतीकात्मक प्रतिनिधि" बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।
इसी के बरअक्स, प्रांतीय न्यायिक सेवा—PCS(J)—में प्रवेश परीक्षा, आरक्षण और चयन की पारदर्शिता के कारण OBC, SC, ST और अल्पसंख्यक वर्गों से बड़ी संख्या में न्यायिक अधिकारी आते हैं। लेकिन ये अधिकारी उच्च न्यायपालिका में लगभग कभी नहीं पहुँच पाते।
🧠 'मेरिट' बनाम 'सामाजिक न्याय': एक वैचारिक भ्रम
जब भी न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो 'मेरिट' का नाम लेकर आरक्षण या समावेशिता की मांगों को खारिज कर दिया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि 'मेरिट' की परिभाषा कौन तय करता है?
क्या सामाजिक संघर्षों से निकलकर, सीमित संसाधनों में पढ़ाई करके, न्यायिक सेवा की परीक्षा पास करने वाले दलित-पिछड़े युवा कम योग्य हैं?
या वे योग्य हैं, जो अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेंट स्कूलों और लॉ कॉलेजों से आकर अपने संपर्कों के बल पर सीधे उच्च न्यायपालिका में नियुक्त हो जाते हैं?
दरअसल, 'मेरिट' को एक जातिगत औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे ब्राह्मणिक वर्चस्व को वैधता दी जा सके और सामाजिक न्याय की माँगों को 'कम योग्यता' का बहाना देकर खारिज किया जा सके।
🛠️ समाधान: Indian Judicial Service (IJS) का गठन
इस गहरे और संस्थागत जातिगत पक्षपात का स्थायी समाधान केवल प्रतीकात्मक नियुक्तियों या कॉलेजियम में मामूली सुधारों से नहीं निकल सकता। इसके लिए कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर, Indian Judicial Service (IJS) नाम की एक नई अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन जरूरी है।
🔹 1. IJS क्या होगी?
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IJS को IAS और IPS की तरह एक अखिल भारतीय सेवा के रूप में स्थापित किया जाए।
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इसकी भर्ती UPSC के माध्यम से प्रतियोगी परीक्षा द्वारा हो।
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इसमें आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह लागू हो, जैसे अन्य केंद्रीय सेवाओं में होता है।
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परीक्षा में विधि, संविधान, सामाजिक न्याय, न्यायिक नैतिकता आदि विषय शामिल हों।
🔹 2. IJS अधिकारियों की भूमिका
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चयनित IJS अधिकारी सीधे उच्च न्यायालयों में नियुक्त किए जाएँ।
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प्रारंभिक वर्षों में वे अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में कार्य करें, फिर वरिष्ठता और प्रदर्शन के आधार पर स्थायी जज बनें।
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सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियाँ इन्हीं वरिष्ठ IJS अधिकारियों से डेप्युटेशन के आधार पर की जाएँ।
🔹 3. प्रांतीय न्यायिक सेवा से समन्वय
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PCS-J (प्रांतीय न्यायिक सेवा) से योग्य, अनुभवी न्यायिक अधिकारियों को प्रमोशन के माध्यम से IJS में लाया जाए।
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यह नीचे से ऊपर तक की न्यायिक सीढ़ी को स्पष्ट और पारदर्शी बनाएगा।
🔹 4. सामाजिक प्रतिनिधित्व का संस्थागत ढांचा
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SC, ST, OBC, EWS और महिलाओं के लिए संवैधानिक आरक्षण लागू हो।
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क्षेत्रीय और भाषाई विविधता को भी चयन मानकों में शामिल किया जाए।
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अल्पसंख्यकों के लिए संरक्षित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था पर विचार किया जाए।
🔹 5. निगरानी और जवाबदेही
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एक राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग (NJSA) की स्थापना की जाए, जो नियुक्तियों, पदोन्नति, शिकायतों और निगरानी की भूमिका निभाए।
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इस आयोग में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, विधिक विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता, महिला प्रतिनिधि और समाजशास्त्री शामिल हों।
🎯 इससे क्या बदलाव आएँगे?
क्षेत्र | कॉलेजियम सिस्टम | Indian Judicial Service |
---|---|---|
नियुक्ति प्रक्रिया | अपारदर्शी, सिफारिश आधारित | पारदर्शी, परीक्षा आधारित |
सामाजिक प्रतिनिधित्व | अत्यंत सीमित | संविधान सम्मत आरक्षण |
जवाबदेही | नहीं के बराबर | NJSA के अधीन |
वर्गीय संतुलन | उच्च जातीय वर्चस्व | समावेशी और विविधतापूर्ण |
मेरिट का आधार | संपर्क और पृष्ठभूमि | निष्पक्ष परीक्षा और अनुभव |
🧾 निष्कर्ष
भारत की उच्च न्यायपालिका में व्याप्त जातिगत असमानता और ब्राह्मण वर्चस्व कोई संयोग नहीं, बल्कि कॉलेजियम सिस्टम जैसी संरचनात्मक व्यवस्था का परिणाम है। जब तक यह प्रणाली कायम है, तब तक न्यायपालिका केवल एक सामाजिक वर्ग की बपौती बनी रहेगी।
इसलिए अब समय आ गया है कि कॉलेजियम सिस्टम को समाप्त कर, संविधान और सामाजिक न्याय के मूल्यों के अनुरूप Indian Judicial Service (IJS) की स्थापना की जाए। यह न केवल सामाजिक रूप से वंचित समुदायों को प्रतिनिधित्व देगा, बल्कि देश की न्यायिक प्रणाली को जवाबदेह, पारदर्शी और लोकतांत्रिक भी बनाएगा।
जिनके लिए संविधान बना, वे संविधान की व्याख्या करने वाली कुर्सियों तक भी पहुँचें—यह केवल आवश्यकता नहीं, लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्यता है।
Labels: आरक्षण, न्यायपालिका, ब्राह्मणवाद, सामाजिक न्याय