बीआर गवई और ब्राह्मणवाद की तिलमिलाहट
जब कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही में न्यायाधीश के सामने जूता फेंकता है, तो वह सिर्फ एक अपराध नहीं है; वह एक संकेत है — एक संदेश (हालाँकि मौन) कि समाज का एक खंड इतनी आहत और आक्रोशित है कि वह संवैधानिक प्रतिष्ठा को चुनौती देने को तैयार हो गया है।
लेकिन प्रश्न यह है: यह आघात केवल उस न्यायाधीश तक सीमित है, या वह कहीं गहरे, वैचारिक, और संरचनात्मक विष से जुड़ा है? न्यायाधीश बी. आर. गवई का नाम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे वास्तव में जाति और धर्म के संदर्भ में एक चिन्ह बन चुके हैं — और इस तथ्य ने इस जघन्य घटना को और ज़्यादा प्रतीकात्मक बना दिया।
यह लेख इस प्रतीकवाद को खोलने की कोशिश है — यह दिखाने की कोशिश है कि क्यों यह सिर्फ एक अपराध नहीं था, बल्कि ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता की निरंतर क्रूरता का एक नया स्वरूप था।
घटना का संक्षिप्त विवरण और सार्वजनिक प्रतिक्रिया
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मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, एक वरिष्ठ अधिवक्ता (राकेश किशोर) ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बी. आर. गवाई के सामने जूता फेंका। The Economic Times+2The Indian Express+2
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आरोपी ने न तो पछतावा जताया, न माफी मांगी, और दावा किया कि उसने यह क्रिया “संवेदनाओं की क्षोभ” के कारण की। mint+3Indiatimes+3The Times of India+3
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न्यायालय और विधि जगत ने इस घटना की तीखी निंदा की — यह कहा गया कि यह न केवल न्यायपालिका पर हमला है बल्कि लोकतंत्र एवं संविधान की गरिमा पर हमला है। The Week+4The Indian Express+4The Indian Express+4
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राजनीतिक दलों ने इसे “न्यायपालिका की गरिमा” पर हमला और “जाति‑प्रेरित घृणा” का संकेत कहा है। The Indian Express+3The Week+3The Indian Express+3
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कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह दर्शाता है कि जातिगत पूर्वाग्रह और मनुवादी मानसिकताएँ अब भी जीवित हैं। The Week+1
यह पर्याप्त है कि हम ये समझें: यह घटना सामान्य “आक्रोश” नहीं थी। यह प्रतीकात्मक संघर्ष था — एक संघर्ष उस सत्ता से, उस हक से जो समाज के निचले तबकों को अवश्य मिला ही नहीं है।
जातिवाद, ब्राह्मणवाद और सत्ता का संयोजन
इस घटना की पृष्ठभूमि में हमें देखनी होगी कि क्यों किसी को यह विश्वास हो गया कि वह न्यायालय की सबसे ऊँची सीट पर बैठे व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपमानित कर सकता है — और समाज का एक अंश इस हिंसा को (मुठभेड़, निशाट करना या खोलकर समर्थन देना) मानने को तैयार था।
1. ब्राह्मणवाद और “उच्चता” की भावना
ब्राह्मणवादी सोच ने भारतीय समाज में उच्चता‑अधिकार की एक संरचना बनाई है: ऊँची जातियों को “आध्यात्मिक श्रेष्ठता”, “शुद्धता”, “सभ्यता” का अधिकार। इस अधिकार को बनाए रखने के लिए हिंसा, आक्षेप, और अपमान का प्रयोग सदियों से जारी रहा है।
जब कोई दलित व्यक्ति न्यायपालिका जैसी ऊँची संस्था की ऊँची पदवी पर पहुंचता है, तो ब्राह्मणवादी मानसिकता की असुरक्षा सामने आ जाती है। यह “अयोग्यता” का घोंटना, “हाशिए” को चुप कराने का प्रयास — और जब ऐसा प्रयास सफल न हो, तो प्रतिरोध हिंसात्मक रूप ले लेता है।
यह हिंसा केवल एक जूते का फेंकना नहीं था; वह एक संस्था-उपरी अल्पसंख्यक व्यक्ति को यह बताने की कोशिश थी: “तुम हमारे शहर से बाहर हो।” यह चेतावनी थी कि “हमारी अनदेखी नहीं होगी।” यह चेतावनी थी कि “तुम अपनी जगह जानो।”
2. प्रतीकात्मक अपमान और उसका अर्थ
जूता फेंकना भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में गहरा अपमान माना जाता है। यह न केवल व्यक्तिगत अपमान है, बल्कि पुरानी प्रथाओं में यह धार्मिक या सामाजिक अपशकुन का संकेत माना गया है। जब यह कार्रवाई एक न्यायाधीश के सामने की जाती है, तो उसकी प्रतीकशक्ति दोगुनी हो जाती है:
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यह दिखाती है कि अपराधी न्यायाधिकरण को “मानव” ही मानता है — उससे ऊपर नहीं, नहीं कि वह अछूत हो।
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यह बताती है कि न्यायपालिका को “सम्मान” नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि उसे डराया या चुनौती दी जा सकती है — उन लोगों द्वारा, जो मानते हैं कि उपरी सत्ता का अधिकार उन्हें प्राप्त है।
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यह एक सार्वजनिक प्रदर्शन था: “देखो, हम तुम्हें अपमान कर सकते हैं।” यह जाति-प्रेरित अपमान था, निहित नस्लवाद का एक विस्तार।
3. दास-स्वामी मनोवृत्ति और “निचले स्थान” की स्थापित भूमिका
ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भारतीय जीवन को “ऊँचा” और “नीचा” विभाजित किया — और साथ ही उन विभाजनों को न्यायसंगत ठहराने वाले तर्कों का समूह तैयार किया। “शुद्ध-अशुद्ध”, “पुरोहित-अन्य”, “ज्ञान-कार्य” आदि विभाजन इसी व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं।
जब एक दलित व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का हिस्सा बनता है — और अपनी भूमिका गरिमापूर्ण ढंग से निभाता है — यह व्यवस्था अस्थिर हो जाती है। “दूसरों की जगह” को भंग होने का भय उत्पन्न होता है।
इसलिए, उस व्यवस्था का एक हिस्सा — जो उपरी जातियों को “स्वाभाविक” अधिकार का दावा देती है — वह प्रतिरोध स्वरूप ऐसी हिंसा को विकल्प मानती है। यह सिर्फ अपमान नहीं; यह स्व-उच्चता की रक्षा का प्रतिकार है।
“स्वतंत्रता विरोधी” मिथक और बहस
कुछ लोग कह सकते हैं: “भले ही वह गलत है, लेकिन वह न्यायाधीश ने भड़का दिया।” इस तर्क की निंदनीयता को हम यहाँ स्पष्ट करना चाहेंगे:
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किसी भी न्यायाधीश को सार्वजनिक आलोचना के दायरे में होना चाहिए, लेकिन वह आलोचना—विवादात्मक, न्यायालयीन समीक्षा—नीति और विधि के आधार पर होनी चाहिए, न कि ज़ुल्म और हिंसा पर।
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घृणा और जाति-प्रेरित अपमान को ‘प्रतिक्रिया’ कह देना इस असमानता की मान्यता देना है। यह कहने जैसा है कि “हमारे पूर्वग्रहों को आप भड़काते हो।”
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यदि “घृणा” को “प्रतिक्रिया” कहा जाए, तो वह व्यवस्था को अपवाद का वर्चस्व बना लेती है — यानी अनियमित लेकिन संभावित हिंसा को स्वीकार्य बना देती है।
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और सबसे महत्वपूर्ण: व्यक्ति की जाति या सामाजिक स्थिति न्यायालयीन कार्य क्षमता या नैतिकता से भिन्न होती है। किसी को न्यायाधीश बनने से पहले जाति-पूर्वाग्रहकों की “अनुरूक्ति” स्वीकार नहीं करनी चाहिए।
इस घटना के निहित संदेश: समकालीन भारत की चुनौतियाँ
सामाजिक सापेक्षता और असुरक्षा
भारत में सामाजिक असमानताएँ इतने सघन पन्नों पर बसी हैं कि एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भी इनसे ऊपर नहीं माना जाता। अगर कोई न्यायाधीश दलित हो, तो वह सबसे ज़्यादा लक्ष्य बनता है।
यह घटना दिखाती है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता न केवल दृष्टिकोण की समस्या है, बल्कि सामाजिक नियंत्रण उपकरण है: अगर कोई “अनधिकृत” व्यक्ति सत्ता की ऊँचाई पर पहुँचता है, तो उसे ध्वस्त करने का प्रयास होगा — प्रतीकात्मक या वास्तविक।
संवैधानिक संस्थाओं पर हमला
यह घटना केवल एक न्यायाधीश पर हमले का मामला नहीं है; यह न्यायपालिका, संविधान, समता के मूल्यों पर हमला है। जब कोई व्यक्ति कानून को छोटे दर्जे का समझता है — कि उसका अपमान संभव है — तो वह लोकतंत्र की नींव को ही नकार देता है।
इतना ही नहीं: यदि समाज “अन्याय” की मान्यता नहीं दे सकता, तो वह अपने ही न्यायालयों को चुनौती देता है। यह एक सियासी और सामाजिक असहमति नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक संकट है।
बहुसंख्यक तर्क और सामाजिक हिंसा
ब्राह्मणवादी समूह अक्सर बहुसंख्यक होने का “न्याय” तर्क देते हैं — “हम ही अधिकांश हैं, हमारी संस्कृति, हमारी धारणाएँ, हमारी नैतिक सीमाएँ”। इस दर्शन में, जो बहुसंख्यक नहीं है, वह हाशिए पर है और उस पर हिंसा करना स्वीकार्य।
इस तर्क का परिणाम यह हुआ कि, एक न्यायाधीश पर जूता फेंका जा सकता है — और उसे “संवेदनाओं का ठेस” कहा जा सकता है — जबकि तर्क, विवेचना, संवाद नहीं स्वीकार्य ठहराए जाते।
यह वही तर्क है जो “अपराधी जनता”, “कानून से ऊपर”, “भीड़ का न्याय” — इन सभी को जन्म देता है। और जब यह तर्क एक न्यायालयीन भवन तक पहुंच जाता है, तो वह संविधान की आत्मा पर वार करता है।
प्रतिकार की जिम्मेदारी: प्रतिक्रिया और संरचनात्मक सुधार
इस घटना ने हमें यह दिखाया कि आलोचना और प्रतिकार के बीच की अन्तर रेखाएँ कितनी पतली हैं। हमें निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करना चाहिए:
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कानूनी कार्रवाई और निष्कर्ष
दोषी को उचित और त्वरित कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत दंडित करना चाहिए। केवल निंदा करना ही नहीं, बल्कि उदाहरण पेश करना चाहिए — कि ऐसी हिंसा समाज द्वारा बर्दाश्त नहीं की जाएगी। -
न्यायपालिका की सुरक्षा और सम्मान
न्यायालयीन सुरक्षा को और अधिक सुदृढ़ करना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुरक्षा व्यवस्था स्वतंत्रता और पारदर्शिता को दबाए नहीं। अदालतों को यह संदेश देना चाहिए कि उनकी गरिमा को नकारना अपराध है, न कि विवाद का विषय। -
शिक्षा और चेतना परिवर्तन
ब्राह्मणवादी और जातिवादी विचारधाराओं को चुनौती देना चाहिए — स्कूलों, विश्वविद्यालयों, मीडिया और सामाजिक मंचों पर। समाज को यह सम्मान सार्वभौमिक होना चाहिए — न कि जातिगत आधार पर। -
अल्पसंख्यकों और दलितों के लिए सशक्तरण
संरचनात्मक सुधारों (शिक्षा, न्याय, समान अवसर) को और तेज़ करना चाहिए, ताकि समाज में “हाशिए” न बनें। यदि वह वर्ग स्वतन्त्र, मजबूत और समर्थ होगा, तो उसकी तुलना में निहित तंत्रों की शक्ति कमजोर पड़ जाएंगी। -
संवाद की संस्कृति और मर्यादा की रक्षा
आलोचना हो सकती है — यह लोकतंत्र का हिस्सा है — लेकिन वह संवाद, तर्क और कानून के दायरे में होनी चाहिए। सार्वजनिक मंचों पर हिंसा और अपमान को समाज को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
निष्कर्ष: चेतना की लड़ाई
बी. आर. गवई पर जूता फेंके जाने की घटना सिर्फ एक “स्कैंडल” नहीं है — यह हमारी सामाजिक ख amputations को उजागर करती है। यह दिखाती है कि ब्राह्मणवादी जातिवाद अभी मरा नहीं है; वह छुपा नहीं, विकसित हुआ है।
यह दावा करना कि “यह एक व्यक्ति की हरकत थी” दोषमुक्ति है — वह चक्र काटना है, वह मूल को नहीं देखना है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि संविधान और न्यायपालिका तब तक जीवित नहीं रह सकेंगे, जब तक समाज का एक बड़ा हिस्सा उन मूल्यों का सम्मान नहीं करता जो उन्होंने प्रतिरक्षा करने का प्रयास किया है।
हमें केवल उस अधिवक्ता को निंदा करने भर से काम नहीं चलेगा। हमें उस मानसिकता, उस इतिहास, उस शक्ति संरचना को रद्द करना होगा, जिसने उसे इतना संवेदनशील, इतना गर्वीला, इतना प्रतिकारक बना दिया कि वह सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही में जूता फेंकने को स्वीकार्य समझ सके।
जब तक सामाजिक चेतना परिवर्तन नहीं होगा, जब तक हम जाति-प्रेरित विभाजन और हिंसा को “समझने योग्य आक्रोश” कहकर नैतिक अपराध को सामान्य नहीं करेंगे, तब तक भारत अधूरा रहेगा — न्याय अधूरा रहेगा।
आज नहीं तो कल; यह संघर्ष इसी सोसाइटी में, इसी भाषा में, हमारी जड़ से लड़ना होगा — वहाँ तक जहाँ कोई व्यक्ति यह सोच न सके कि वह समाज के किसी “अधिकार से ऊपर” है।
Labels: जातिवाद, दलित, ब्राह्मणवाद
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